Uttarakhand Farming: खेती से पलायन कर रहे लोग, तेजी से घट रही खेती की जमीन| लोकसभा चुनाव में खेती और किसानी बेशक राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख मुद्दा न हो लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण और किसान के लिए छूटती खेती सबसे बड़ी परेशानी का सबब है। कागजों में राज्य की बड़ी आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर दिखाई देती है लेकिन हकीकत में उत्तराखंड की खेती- किसानी अपने सबसे बड़े संकट के दौर गुजर रही है।
उत्तराखंड में खेती की जमीन तेजी से घट रही है। कृषि विभाग की रिपोर्ट में यह चिंताजनक तस्वीर सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 से वर्ष 2022-23 के बीच कृषि भूमि 17 प्रतिशत तक कम हुई है। वहीं उत्पादन में तीन हजार मीट्रिक टन की कमी आई है। इससे खाद्यान्न के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भरता बढ़ रही है।
कृषि विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2011-12 में जहां राज्य में 9,09,305 हेक्टेयर जमीन में खेती होती थी। वहीं वर्ष 2022-23 में यह आंकड़ा घटकर 753,014 हेक्टेयर रह गया। उत्तराखंड में वर्ष 2012 में 1.80 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था। यह भी 2023 तक घटकर 1.77 लाख मीट्रिक टन रह गया है। संयुक्त निदेशक (कृषि) कुमाऊं मंडल पीके सिंह ने बताया किखेती करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके लिए उन्नत बीज दिए जाने के साथ ही आधुनिक तकनीक का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
राज्य के पर्वतीय इलाकों में कभी मंडुवा, झंगोरा, लाल चावल, राजमा, मटर की खेती से हरे-भरे रहने वाले खेत आज उजाड़ हो चुके हैं। कहीं सिंचाई के संसाधनों के अभाव में तो कहीं जंगली जानवरों की घुसपैठ से खेती छोड़ना किसानों की मजबूरी बन गई है। जिस राज्य में 70% से अधिक भू-भाग वन क्षेत्र हो और खेती के लिए बेहद सीमित भूमि बची हो, वहां खेती-किसानी का छूटना न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि भविष्य के लिए खतरनाक भी है। यह संकट उस सूरत में और भी भयावह दिखाई देता है जब यह सामने आता है कि राज्य गठन बाद से अब तक दो लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारें योजनाओं का मरहम तो लगा रही हैं फिर भी उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। जंगली जानवरों के नुकसान से कास्तकार खेती छोड़ रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण टिहरी जिले के जाखणीधार ब्लॉक के सेमा गांव है। इस गांव में 70 परिवार निवास करते हैं। इस बार इन ग्रामीणों ने अपने खेतों में गेहूं की बिजाई इसलिए नहीं की, क्योंकि हर बार जंगली जानवर फसल तैयार होने से पहले ही इसे तबाह कर देते हैं। उनके हाथ कुछ नहीं लगता।
राज्य गठन के समय उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था। जो 24 सालों में घट कर 5.68 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। हर चुनाव में खेती किसानी और कास्तकार के आमदनी बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल मुद्दे को बनाते हैं लेकिन ये चुनावी वादे राज्य में खेती किसानी की तस्वीर नहीं बदल पाई है। हकीकत यह है कि खेती का रकबा साल दर साल घट रहा है। जंगली जानवरों की समस्या, सिंचाई सुविधा का अभाव, बिखरी कृषि जोत के कारण लोग खेती से पलायन कर रहे हैं।
एक इस धार और दूसरा उस धार में खेत
पर्वतीय क्षेत्रों में खेती किसानी में सबसे बड़ी चुनौती बिखरी कृषि जोत भी है। 1962 से आज तक जमीनों का बंदोबस्त नहीं हुआ है। किसानों के पास एक ही जगह पर खेती के पर्याप्त भूमि नहीं है। एक खेत पहाड़ के इस धार में है तो दूसरा खेत दूसरी धार में है। जिसमें खेतीबाड़ी करने में ज्यादा मेहनत लगती है। साथ ही फसलों की रखवाली भी नहीं हो पाती है। क्लस्टर और संविदा खेती के लिए पहाड़ों में कृषि भूमि की सबसे बड़ी समस्या है। सरकारों ने इस समस्या को देखते हुए चकबंदी की पहल थी। लेकिन गोल खातों के चलते चकबंदी सिरे नहीं चढ़ पाई है।
बिना पानी के कैसे आएगी हरियाली
प्रदेश के कुल कृषि क्षेत्रफल का 49.55 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र में आता है। जबकि 50.45 प्रतिशत मैदानी व तराई का क्षेत्र है। पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 12.06 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है। जबकि किसानों को फसलों की पैदावार के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। समय पर बारिश नहीं हुई तो किसानों को मेहनत के बराबर भी उपज हाथ नहीं लगती है।
मोटे अनाजों पहचान तो मिली, क्षेत्रफल हो गया आधा
मंडुवा, झंगोरा, चौलाई, राजमा, गहथ, काला भट्ट परंपरागत फसलें है। श्री अन्न योजना से इन मोटे अनाजों को पहचान तो मिली है। लेकिन बाजार की मांग को पूरा करने के लिए पैदावार बढ़ाना भी एक चुनौती है। राज्य गठन के बाद मंडुवा का क्षेत्रफल आधा हो गया है। 2001-02 में प्रदेश में मंडुवे का क्षेत्रफल 1.32 लाख हेक्टेयर था। जो 2023-24 में घट कर 70 हजार हेक्टेयर रह गया।
चीड़ हटाने के लिए बने नीति
प्रदेश में 70 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र है। वनों से सटे गांवों में चीड़ तेजी से फैल रहा है। इसका असर फसलों की पैदावार पड़ रहा है। साथ ही खेतों के आसपास के जलस्रोत भी सूख रहे हैं। किसान अब खेतों से चीड़ हटाने के लिए नीति बनाने की मांग उठा रहे हैं। जिससे किसान खेतों से चीड़ काट कर इसकी जगह अखरोट व अन्य फलदार का उत्पादन कर सके।
फसलों को 30 प्रतिशत नुकसान तो मुआवजा नहीं
प्राकृतिक आपदा व मौसम की मार से किसी क्षेत्र में फसलों को 30 प्रतिशत तक नुकसान होता है तो किसानों को मुआवजे का प्रावधान नहीं है। फसल बीमा योजना के तहत मानकों के अनुसार 33 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर ही क्षतिपूर्ति का भुगतान किया जाता है। 2023-24 में 86,376 किसानों ने फसल बीमा कराया है। जिसमें कुल 23,712 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र शामिल है।
रिपोर्ट में और क्या है?
कृषि विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2011-12 में राज्य में 9,09,305 हेक्टेयर जमीन में खेती होती थी। जो अब घटकर साल 2022-23 में 753,014 हेक्टेयर रह गया।
उत्पादन की बात करें तो प्रदेश में साल 2012 में एक लाख 80 हजार मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था। जो 2023 तक घटकर एक लाख 77 हजार मीट्रिक टन रह गया है।
प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बढ़ोतरी देखने को मिली है। साल 2012 में एक हेक्टेयर में 1.98 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था, जो 2023 में बढ़कर 2.36 मीट्रिक टन पहुंच गया है। ये उन्नत किस्म बीजों के चलते हुआ है।
प्रदेश में गेहूं, धान, मडुवा, मक्का, जौ और दाल का उत्पादन हर साल घट रहा है।
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