Lok Sabha Election 2024: गढ़वाल सीट पर मुद्दो से भटक कर रैबासी पर उलझे प्रत्याशी| चुनावी दौरों में सियासी दलों का यह प्रचलन हमेशा से रहा है कि वे वोटरों के द्वार-द्वार जाकर उनसे नाता जोड़ें और उनके समर्थन का वादा करें। खासकर राजनीतिक प्रत्याशियों की ओर से यह वादा किया जाता है कि वे विभिन्न समाजिक वर्गों के लोगों की समस्याओं का हल ढूंढेंगे और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाएंगे। युवा, महिला, किसान, और अन्य समूहों को समर्थन के लिए वादों की झड़ी लगाना, वास्तव में, राजनीतिक दलों के लिए एक आम तकनीक है। लेकिन जब चुनाव खत्म हो जाते है तो कोई भी गांव की तरफ झांकता भी नहीं है. बहुत कम ही दल उन वादों को पूरा करते हैं जो उन्होंने चुनावी प्रचार में किये थे। वे आमतौर पर अपनी राजनीतिक हलचल के चलते अपनी नियति भूल जाते हैं, जिससे कि जनता के विश्वास की कमी होती है।
इसी तरहा गढ़वाल संसदीय सीट पर उतरे सियासी दलों और उनके प्रत्याशियों ने युवा, महिला, किसान हर वर्ग को साधने के लिए चुनावी वादों की झड़ी लगा दी है, लेकिन इस सीट पर आज भी लाखों बेरोजगार युवा रोजगार की आस लगाए हुए हैं। महिलाओं को काम चाहिए, ताकि वे अपनी गृहस्थी में हाथ बंटा सकें। लेकिन गढ़वाल लोकसभा सीट पर इन मुद्दो की बजाय “मैं पहाड़ूं कू रैबासी, तू दिल्ली रहण वालू” ज्यादा छाया हुआ है.
चार पर्वतीय जिले पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग और नैनीताल के रामनगर को शामिल करते हुए बनी इस संसदीय सीट के युवा रोजगार मांग रहे है जबकि महिलाओं को काम चाहिए. लेकिन हैरानी की बात है कि यहां के प्रत्याशियों को सिर्फ रैबासी होने का प्रूफ चाहिेए.
देश की आजादी के बाद वर्ष 1952 से अस्तित्व में गढ़वाल संसदीय सीट से कांग्रेस को 10 बार तो भाजपा को छह बार प्रतिनिधित्व मिला, जबकि एक बार अन्य दल के प्रत्याशी जीते हैं, लेकिन आज तक किसी भी दल ने पहाड़ की परिस्थितियों को पहाड़ की तरह नहीं देखा। यहां ब्लॉक, तहसील व जिला स्तर पर डिग्री कॉलेज खोले गए हैं, लेकिन युवा ऐसी शिक्षा का अब भी इंतजार कर रहे हैं, जो उनकी आजीविका का साधन बन सके। जब वे संस्थानों से बाहर निकले तो उनके हाथों में काम हो। जिससे की युवा पलायन को मजबूर ना हो और पहाड़ के युवाओं के पास पहाड़ में रोजगार उपलब्ध हो.
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वहीं महिलाओं के विकास के नाम पर सरकारी योजनाएं तो हैं, लेकिन प्रभावी नियोजन और प्रबंधन के अभाव में एक बड़ी आबादी इसके लाभ से महरूम है। बालिकाओं के लिए पहाड़ में पृथक उच्च शिक्षण संस्थान, आईटीआई, पॉलीटेक्निक, मेडिकल कॉलेज, और अस्पताल नहीं खुल पाए हैं। महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक विकास के नाम पर कुछ होता नहीं दिख रहा है। यही वजह है कि पलायन आयोग की रिर्पोट के मुताबिक पिछले पांच वर्ष में पौड़ी से 5474 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है. वहीं शिक्षा विभाग की रिर्पोट के मुताबिक पौड़ी में 315 स्कूल बंद हो गये है.
पहाड़ के विकास के लिए पहाड़ जैसी सोच होनी जरूरी है। सड़क व रेल मार्ग समय की जरूरत है, लेकिन रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जो गांव खाली हो रहे हैं, उन्हें फिर से गुलजार करने के लिए किसी के पास नीति नहीं है। आपदा के दंश से प्रभावित लोगों के पास विस्थापन ही विकल्प है, लेकिन इस दिशा में भी संसद में शायद ही किसी जनप्रतिनिधि ने आज तक सवाल उठाया हो। नवंबर 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहाड़ के आम व्यक्ति के मन में जो उम्मीदें जगी थीं, वह लोकसभा सदस्यों के माध्यम से भी पूरी होती नहीं दिख रही हैं। पहाड़ की परिस्थितियों के बजाय वह भी भाजपा-कांग्रेस की दिल्ली की सोच से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उत्तराखंड के लिए चिंतजनक है कि कैसे रूकेगा पलायन और कब मिलेगा रोजगार.
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