ब्रिटिश हुकूमत के दौर में देहरादून से पहाड़ों की रानी मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया गया था जो पूरा ना हो सका. लेकिन अब सीएम धामी ने इस परियोजना को लेकर उम्मीद जगा दी है. मुख्यमंत्री धामी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देहरादून मसूरी रेल परियोजना को हरी झंडी दिखाने की मांग की है. लेकिन क्या आप जानते है कि इस रेल परियोजना को पटरी पर लाना आंग्रेजो का एक सपना था जो सपना बनकर ही रह गया.तो आइए दूनघाटी के इसी सुनहरे अतीत से आपका परिचय कराते हैं।
कहानी शुरू होती है, जब रेल देहरादून पहुंचती है। इसके लिए वर्ष 1894 में देहरादून-हरिद्वार के बीच ट्रैक बिछाने का काम शुरू हो चुका था। वर्ष 1899 में यह ट्रैक बनकर तैयार हुआ और वर्ष 1900 से देहरादून-हरिद्वार के बीच रेल चलनी शुरू हो गई। उस दौर में अंग्रेजों ने व्यापार और हुकूमत, दोनों के लिए देहरादून रेलवे स्टेशन का भरपूर उपयोग किया। इस स्टेशन के निर्माण के बाद अंग्रेज अधिकारियों के लिए मसूरी समेत गढ़वाल रियासत के विभिन्न हिस्सों में पहुंचना आसान हो गया था।
लेकिन, अपनी सोच एवं तकनीकी के लिए मशहूर अंग्रेजों के कदम भला इतने में ही कहां रुकते। तो, वह देहरादून शहर से 12 किमी दूर राजपुर गांव से मसूरी तक रेल ले जाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने लगे। इसके लिए सर्वे का कार्य तो वे पहले ही पूरा कर चुके थे। उन्होंने राजपुर गांव के पास सुरंग बनानी शुरू की, जिससे होते हुए रेल ट्रैक को मसूरी पहुंचाया जाना था। अंग्रेज अधिकारी चाहते थे कि अगले दो सालों में वह मसूरी रेल ले जाने के सपने को हकीकत में बदल डालें।
अंग्रेजों ने पुरानी मसूरी के पास रेलवे ट्रैक बिछाने के लिए दो बार सर्वे किया। पहला सर्वे हर्रावाला से राजपुर गांव होते हुए मसूरी तक वर्ष 1885 में किया गया। वर्ष 1893 में रेल लाइन बिछाने का मसौदा भी तैयार कर लिया गया। इसके तहत अवध एंड रुहेलखंड रेलवे कंपनी की योजना राजपुर होते हुए मसूरी तक रेलगाड़ी ले जाने की थी। मसूरी के लिए रेल ले जाने का दूसरा प्रयास वर्ष 1920-21 में हुआ। तब हिंदुस्तान के कुछ राजे-रजवाड़ों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर मसूरी-देहरा ट्रॉम-वे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने 23 लाख रुपये की लागत से मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। अगर यह योजना जारी रह पाती तो यकीनन वर्ष 1928 तक रेल मसूरी पहुंच गई होती।
बताया जाता है कि मसूरी रेल परियोजना के बंद होने की वजह तब दून के व्यापारियों का तीखा विरोध भी बना। दरअसल, परियोजना के रोड मैप के अनुसार रेल ट्रैक को हर्रावाला से शहंशाही आश्रम होते हुए ओकग्रोव स्कूल, झड़ीपानी, बार्लोगंज और कुलड़ी के पास हिमालय क्लब से होकर गुजरना था। उस दौर में देहरादून के इस पूरे हिस्से में चाय और बासमती धान की खेती हुआ करती थी। ये दोनों ही नकदी फसलें तब व्यापार का प्रमुख जरिया थीं। इसे देखते हुए दून के व्यापारी हर्रावाला से सीधे मसूरी रेल लाइन बिछाने के विरोध में उतर आए। इस तरह पहली बार मसूरी रेल लाइन बिछाने की सोच को झटका लगा।
राजपुर शहंशाही आश्रम से कुछ आगे पुराने मसूरी टोल पर सुरंग बनाने का काम शुरू किया गया। लेकिन बताया जाता है कि सुरंग बनाते समय कुछ मजदूर दबकर मर गए और अन्य मजदूरों ने काम करना छोड़ दिया, जबकि कंपनी टोल तक पटरियां ला चुकी थी। इसके बाद तय हुआ देहरादून से मसूरी को इलेक्ट्रिक ट्रेन ट्रैक बनाया जाए और ग्लोगी पावर हाउस से बिजली की सप्लाई की जाए।लेकिन, यह सपना हकीकत में नहीं बदल पाया।
इसी रेल लाइन बिछाए जाने की प्रत्याशा में वर्ष 1888 में झड़ीपानी में ओक ग्रोव स्कूल की स्थापना की गई। लेकिन प्रोजेक्ट परवान नहीं चढ़ सका। आज भी ओकग्रोव स्कूल का संचालन उत्तरी रेलवे द्वारा किया जाता है।
धरोहरों की सुध लेने वाला कोई नहीं
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारी सरकारें अतीत की धरोहरों का संरक्षण भी नहीं कर पा रहीं। इसी का नतीजा है कि अंग्रेजों की बनाई इस सुरंग के चारों ओर इस कदर झाड़ियां उग आई हैं कि सुरंग कहीं नजर ही नहीं आती। सुरंग तक पहुंचने का रास्ता भी जमींदोज हो चुका है। सरकारें चाहती तो नई पीढ़ी के ज्ञानवर्द्धन के लिए इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता था।
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