February 8, 2025

LIVE SAMIKSHA

KHABAR KA ASAR

Uttarakhand Diwali: उत्तराखंड की अनोखी दीपावली, गांव की ऐतिहासिक बग्वाल  

Uttarakhand Diwali| उत्तराखंड की अनोखी दीपावली, गांव की ऐतिहासिक बग्वाल: गाँव में हम लोग दीपावली परम्परागत रूप से मनाते थे। यह त्योहार हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होता था और हर साल हम इसे खुशी और उत्साह के साथ मनाते थे। हम रात में भैला खेलते थे। फिर पंचायत घर में सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था। जिसमें ढोल की थाप पर सब नाचते थे।गाँव में दीपावली मनाने का एक और कारण होता था, सामाजिक और परिवारिक एकता को स्थापित करना।

यह त्योहार सभी परिवारों को एक साथ लाता था और उन्हें एक-दूसरे के साथ मिलने और बातचीत करने का अवसर देता था। गाँव में हम लोग अपने पड़ोसियों को दीए और भैला और छिलके देते थे। (भैला एक पेड़ की प्राकृतिक डोर लगला (रस्सी) और उसमें चीड़  की तेजाबी लकड़ी बांधी जाती थी! तब इसमें रात में आग लगाई जाती थीं, और इसे जला कर अपने ऊपर घुमाया जाता था। सौड़ मैदान में एक साथ 300 भैला जलते थे। इससे बहुत रौशनी होती थी। जिससे हमारे बीच में मजबूत बंधन बनते थे। भैला के लगले ओजी लोग हर परिवार को सदस्य के हिसाब से देते थे। रूमक पड़ने (अंधेरा होने) पर आंगन में औजी ढोल के साथ हर परिवार को लगले देते थे। पहले से चीड़ की तेजाबी लकड़ी परिजनों की साल भर से इकट्ठा की हुई रहती थीं। आंगन में आग जलाकर दो तीन मर्द भैला बनाते थे। खाना खाकर इन भैला को ढोल की थाप पर गांव से दूर सौड़ (मैदान) में घुमाने ले जाये जाता था।

 

दीपावली गांव में ढोल-नगाड़ा के साथ मनाई जाती थी। एक सामुहिक भैला मनाण पंचायत घर में  घुमाया जाता था।  यह संदेश रोशनी के लिए होता था। सांस्कृतिक संध्या लाजवाब होती थी। गांव में सभी छोटे-बड़े पंचायत घरों में इस सांस्कृतिक संध्या में शामिल होते थे। हर आदमी गीत गाता था। अपनी अपनी लाइफ में गांव की दिवाली के दिन की पूरे साल भर में इंतजार होता था।

 

हम गाँव में रंगों से भरे पटाखे फोड़ते, आतिशबाजियाँ जलाते और मेलाओं को आयोजित करते थे। यह त्योहार हमारे गाँव को जीवंत बनाता था। लोग  एक-दूसरे के घर जाते थे और एक-दूसरे की खुशी में हिस्सा बनते थे। धीरे-धीरे समय के साथ, गाँव में दीपावली मनाना थोड़ा कम हो गया है। यह त्योहार जैसे अब नगरों में होता है वैसे यह अब गांव में हो रहा है। पूरा बाज़ारवाद गांव में भी हावी है। पकौड़ी, भरी पूड़ी की जगह अब मिठाइयों ने ले ली है। पहले पकौड़ी के लिए डाल सुरक्षित रखी जाती थी तथा दिवाली के तीन-चार महीने पहले तिल और लाई का तेल पिराई करके घर में सुरक्षित रखा जाता था। गांव के खेतों में होते तिल और लाई के तेल में जैसे दाल का पकोड़ा बनाने के लिए कड़ाई में पड़ता था, पूरे खोला (मोहल्ले) में खुशबू पसर जाती थी! गांव की दीपावली में साझेदार भूमिका निभाने  से हमारी सांस्कृतिक धरोहर का विस्तार होता था।  इस महत्वपूर्ण उत्सव को सुरम्य जैसा और यादगार सांस्कृतिक संध्या मनाने से हम अपनी प्राचीन संस्कृति को मजबूती देते थे।

 

गाँव में दीपावली का यह मनाने का परंपरागत तरीका उनके लिए एक माध्यम होता था, अपनी सांस्कृतिक मूल्यों और परंपराओं को जीवित रखने का। गाँव में यह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिवारिक एकता का प्रतीक होता था। यह धूमधाम से भरी त्योहार हमारे गाँव को जीवंत रखता था और हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं को महत्व दिलाता था।

लेखक-शीशपाल गुसाईं

 

यह भी पढ़े- Tehri Garhwal: कलयुगी बेटे ने डंडे से पीट-पीटकर की मां की हत्या